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हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 2(2)

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 04-Aug-2025

मन्नी देवी बनाम रमा देवी एवं अन्य 

आदिवासी पुत्रियों को समान उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित करना अनुचित है और केंद्र से सांविधानिक अधिकारों और कमला नेटी (मृत) बनाम विशेष भूमि अधिग्रहण अधिकारी (2023) और अन्य में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के मद्देनजर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 2 (2) में संशोधन करने का आग्रह किया।” 

न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड 

स्रोत:राजस्थान उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड नेकहा कि अनुसूचित जनजाति समुदायों की पुत्रियों को पैतृक संपत्ति में समान अधिकार से वंचित करना अनुचित है और उन्होंने केंद्र सरकार सेआदिवासियों के बीच लिंग समता सुनिश्चित करने के लियेहिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 2(2) में संशोधन करने का आग्रह किया। 

  • राजस्थानउच्च न्यायालय नेमन्नी देवी बनाम रमा देवी एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

मन्नी देवी बनाम रमा देवी एवं अन्य मामलेकी पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • मन्नी देवी अपने पिता पंचू की इकलौती संतान थीं, उनका कोई भाई नहीं था। उनके पिता ने 12 मार्च 2018 को प्रतिवादी संख्या 2 के पक्ष में पैतृक भूमि के संबंध में एक दान विलेख निष्पादित किया 
  • याचिकाकर्त्ता ने अतिरिक्त जिला न्यायाधीश संख्या 11, जयपुर मेट्रो-I के समक्ष सिविल वाद दायर कर दान विलेख की वैधता को चुनौती दी। 
  • प्रत्यर्थी ने तकनीकी आधार पर वाद को खारिज करने की मांग करते हुएसिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के अधीन एक आवेदन दायर किया, जिसमें तर्क दिया गया कि खातेदारी अधिकारों की पूर्व घोषणा के बिना, दान विलेख को रद्द करने के लिये सिविल वाद पोषणीय नहीं था। 
  • सिविल न्यायालय ने 27 मार्च 2023 के आदेश के अधीन प्रतिवादी के आवेदन को स्वीकार कर लिया, तथा याचिकाकर्त्ता को सक्षम राजस्व न्यायालय से अपने खातेदारी अधिकारों की घोषणा करने की स्वतंत्रता प्रदान की। 
  • सिविल न्यायालय के निदेश के पश्चात् याचिकाकर्त्ता ने चाकसू के उपखण्ड अधिकारी (SDO) के समक्ष पैतृक संपत्ति में अपने अधिकारों की घोषणा के लिये वाद संस्थित किया। 
  • वाद के लंबित रहने के दौरान, प्रत्यार्थियों ने सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के अधीन एक आवेदन प्रस्तुत कर वादपत्र को नामंजूर करने की मांग की। 
  • उन्होंने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 2(2) का हवाला देते हुए तर्क दिया कि अधिनियम के उपबंध अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों पर तब तक लागू नहीं होते जब तक कि केंद्र सरकार द्वारा आधिकारिक राजपत्र में विशेष रूप से अधिसूचित न किया जाए। 
  • उपखण्ड अधिकारी (SDO) ने 24 जुलाई 2023 के आदेश के अधीन प्रत्यार्थियों के आवेदन को खारिज कर दिया, जिससे याचिकाकर्त्ता के वाद को आगे बढ़ने की अनुमति मिल गई।  
  • उपखण्ड अधिकारी (SDO) के आदेश से व्यथित होकर प्रत्यार्थियों ने राजस्थान काश्तकारी अधिनियम, 1955 की धारा 230 के अधीन राजस्व बोर्ड के समक्ष पुनरीक्षण याचिका दायर की। 
  • राजस्व मंडल ने 9 जून 2025 के आदेश द्वारा पुनरीक्षण याचिका स्वीकार करते हुए कहा कि चूँकि याचिकाकर्त्ता अनुसूचित जनजाति (मीणा समुदाय) से संबंधित है और उसका कोई भाई नहीं है, इसलिये उसे पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार का कोई अधिकार नहीं है। परिणामस्वरूप, मंडल ने प्रत्यार्थियों केसिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के अधीन आवेदन स्वीकार कर लिया और याचिकाकर्त्ता के वादपत्र को नामंजूर कर दिया। 
  • मुख्य विवाद इस बात से संबंधित था कि क्या अनुसूचित जनजाति समुदायों की पुत्रियाँ अपने पिता की पैतृक संपत्ति में समान उत्तराधिकार के अधिकार की हकदार हैं, विशेष रूप सेहिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 2(2) के अधीन बहिष्करण प्रावधान के प्रकाश में। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा किहिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 2(2) “महिला आदिवासियों के अपने पिता की संपत्ति में अपना अधिकार जताने के रास्ते में बाधा उत्पन्न करती है” तथा अनुसूचित जनजाति समुदायों की पुत्रियों के विरुद्ध अनुचित विभेद उत्पन्न करती है। 
  • न्यायालय ने कहा कि जब गैर-अनुसूचित जनजाति समुदायों की पुत्रियों अपने पिता की संपत्ति में समान अंश का अधिकार रखती है, तो अनुसूचित जनजाति समुदायों की पुत्रियों को समान अधिकार से वंचित करना भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है, जो जाति के आधार पर विभेद को रोकता है। 
  • न्यायालय ने हाल ही मेंकमला नेटी (मृत) बनाम विशेष भूमि अधिग्रहण अधिकारी (2023), तीर्थ कुमार बनाम दादू राम (2024), और राम चरण बनाम सुखराम (2025) में उच्चतम न्यायालय के निर्णयों पर व्यापक रूप से विश्वास किया, जिसमें कहा गया था कि महिला उत्तराधिकारियों को संपत्ति में अधिकार देने से इंकार करने से लिंग विभाजन और विभेदन बढ़ता है। 
  • न्यायालय ने कहा कि "महिला आदिवासी, बिना वसीयत के उत्तराधिकार के मामले में पुरुष आदिवासी के साथ समता की हकदार है" और "आजादी के सात दशक से अधिक समय बाद भी आदिवासी पुत्रियों को समान अधिकार से वंचित करना स्पष्ट रूप से अनुचित है।" 
  • न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 समता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गैर-भेदभाव के मौलिक अधिकारों को प्रत्याभूत करता हैं, जिनका वर्तमान में विधिक ढाँचे द्वारा उल्लंघन किया जा रहा है। 
  • न्यायालय ने महिला सशक्तिकरण आंदोलनों में वैश्विक वृद्धि पर ध्यान दिया और इस बात पर बल दिया कि 21वीं सदी में लिंग समता पर चर्चा सांविधानिक समर्थन के साथ "मात्र बयानबाजी से आगे बढ़कर एक गतिशील आंदोलन" बन गई है। 
  • न्यायालय ने कहा कि यद्यपि धारा 2(2) को कुछ निश्चित उद्देश्यों के साथ अधिनियमित किया गया था, किंतु आदिवासी महिलाओं को उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित करने में इसका प्रयोग समता और गैर-भेदभाव के सांविधानिक अधिदेश के विपरीत है। 
  • न्यायालय ने कहा कि केंद्र सरकार के लियेहिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 2(2) परपुनर्विचार करना तथा अनुसूचित जनजाति समुदाय की महिला सदस्यों के अधिकारों की रक्षा और संवर्धन के लिये संशोधनों पर विचार करना "सही और उचित समय" है। 

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 2(2) और भारतीय संविधान का अनुच्छेद 366(25) क्या है? 

  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 2(2)अनुसूचित जनजातियों के सभी सदस्यों को संपूर्ण अधिनियम के दायरे से बाहर रखती है, जिससे उत्तराधिकार के अधिकारों पर पूर्ण प्रतिबंध लग जाता है। 
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 366(25) "अनुसूचित जनजातियों" की आधिकारिक परिभाषा विशिष्ट जनजातियों, जनजातीय समुदायों या ऐसे समुदायों के भीतर समूहों के रूप में प्रदान करता है जिन्हें अनुच्छेद 342 के अधीन औपचारिक रूप से मान्यता प्राप्त है। 
  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के प्रावधान में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यह अधिनियमसंविधान के अनुच्छेद 366(25) के अधीन परिभाषित अनुसूचित जनजाति के किसी भी सदस्य पर लागू नहीं होगा, जोदोनों प्रावधानों को सीधे जोड़ता है। 
  • केवल केंद्र सरकार के पास ही आधिकारिक राजपत्र में आधिकारिक अधिसूचना के माध्यम से अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम लागू करने का विशेष अधिकार है। 
  • अनुच्छेद 366(25) के अधीन जनजातीय दर्जा स्वतः नहीं है, अपितु अनुच्छेद 342 के अधीन स्थापित आधिकारिक प्रक्रिया के माध्यम से औपचारिक सांविधानिक मान्यता की आवश्यकता है, जो राष्ट्रपति को अनुसूचित जनजातियों को अधिसूचित करने का अधिकार देता है। 
  • विशिष्ट सरकारी अधिसूचना के बिना, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम सभी जनजातीय समुदायों पर पूरी तरह से लागू नहीं होता है, जिससे उन्हें गैर-जनजातीय नागरिकों को उपलब्ध उत्तराधिकार अधिकारों का दावा करने से रोका जाता है। 
  • धारा 2(2) के अधीन अपवर्जन सभी जनजातीय सदस्यों पर लागू होता है, चाहे वे हिंदू रीति-रिवाजों का पालन करते हों या अपने दैनिक जीवन में हिंदू प्रथाओं को अपनाते हों। 
  • अनुच्छेद 366(25) आंतरिक विभाजन के कारण अपवर्जन को रोकने के लिये संपूर्ण जनजातियों, जनजातीय समुदायों और बड़े जनजातीय समुदायों के भीतर विशिष्ट भागों या समूहों को सम्मिलित करके व्यापक व्याप्ति (coverage) सुनिश्चित करता है। 
  • यह सांविधानिक ढाँचा एक पूर्ण विधिक बाधा उत्पन्न करता है जो आदिवासी महिलाओं को समान उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित करता है, क्योंकि केवल अनुच्छेद 342 के अधीन औपचारिक रूप से अधिसूचित समुदाय ही इस अपवर्जन प्रावधान के अधीन हैं। 
  • धारा 2(2) को अनुच्छेद 366(25) के साथ एकीकृत करने से यह स्थापित होता है कि उत्तराधिकार के अधिकारों से अपवर्जन विशेष रूप से संविधान के अधीन अनुसूचित जनजातियों के रूप में आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त सभी समुदायों पर लागू होता है, तथा यह पूर्ण निषेध के रूप में कार्य करता है, जब तक कि केंद्र सरकार उन्हें सम्मिलित करने के लिये अपनी विवेकाधीन शक्ति का प्रयोग नहीं करती।